दिल से दिमाग की लड़ाई हो गई,
छोटी सी बात पे इनकी पिटाई होगई।
दिल का कसूर इतना था बस,
पूछ लिया उसने दिमाग से की,
तू कुछ भी करने से पहले,
इतना सोंचता क्यों हैं।
इसमें दिमाग ने कहा
मैं तेरी तरह नही की
कहीं पे भी भावनाओं में बह जाऊं
और कहीं पर भी दोखा खजाऊँ।
दिमाग हूँ सोंच समझ के ही फैसले लेता हूँ।
इतने में दिल कहता है सोंचने में
इतना क्यों इतराता है,
सोंच में भी जरूर किसी ने
तुझे उलझाया होगा,
किसी ने तुझे भी
अपने जाल में फँसाया होगा,
तू भी किसी बात से खूब रोया होगा।
दिमाग ने इस बारे में
बहोत सोंचा की बात तो ये ठीक करता है,
फिर भी अपनी बात में
मन में दबाए रखूंगा।
दिल को ये बात पता चल गई,
उसने दिमाग से ये बात कह दी
मन की बात दिल सब जानता है,
मन में जो भी बात रखेगा
वो बात घमंड, अकड़, गुस्से
के रूप में बाहर आएगी।
दिमाग भी थोड़ा संभला
फिर मन की बात उसने दिल से कही
तब थोड़ा दिमाग हल्का हुआ
अब वो हर बात दिल को बताता
दिल न सुने तो पन्ने को बताता।
– मनीषा कुमारी