आसमाँ से सूरज,
ढ़लता हुआ देखा।
किसी को,
किसी की तरफ जाते हुये देखा।
आना जाना तो,
हर किसी को था।
लेकिन दो खाबों का मिलना,
भी ज़रूरी था।
उन विचारों को मिलना,
भी ज़रूरी था।
रास्ते तो हर जगह हैं,
लेकिन खुद को
खुदसे मिलाना भी
ज़रूरी था।
आना जाना शब्दों का,
लगा ही रहता है।
देखने को मंजिल,
अधूरा ही रहता है।
दुनिया की हर चीज़,
अधूरी ही तो है।
बस पूरी करने में,
पूरा साल लगता है।
आसमाँ से सूरज,
ढ़लता हुआ तो
ज़रूर लगता है,
लेकिन अगले दिन
फिर उगता भी
ज़रूर है।
– मनीषा कुमारी