खेल खेल के दुनिया सारी,
खेल में ही चली जाती है।
न देखती दाँए बाएँ,
न देखती आगे पीछे।
खुद के मन से रुक जाया करती हैं,
कभी खुद ही चल जाया करती है।
कभी ये रुलाती है, कभी ये सताती है,
कभी साथ दे जाती है।
लाते लाते रंग कई,
रंगोली सी बिखर जाती है।
– मनीषा कुमारी
4 replies on “खेल खेल के दुनिया सारी”
बढ़िया
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धन्यवाद
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Ok
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